12/26/25

क्या स्त्री आज भी अन्नपूर्णा और गृहलक्ष्मी है?


हम अक्सर गर्व से कहते हैं कि भारतीय संस्कृति में स्त्री को देवी का स्थान दिया गया है। उसे अन्नपूर्णा कहा गया, गृहलक्ष्मी कहा गया। ये शब्द सुनने में जितने सुंदर हैं, उतने ही भारी भी। क्योंकि इनके साथ अपेक्षाएँ जुड़ी हैं — ऐसी अपेक्षाएँ जो समय के साथ बदली नहीं, बल्कि और जटिल होती चली गईं।

आज के घरों में भोजन समय पर मिलता है, घर सुसज्जित रहता है, व्यवस्थाएँ चलती रहती हैं। बाहर से सब कुछ ठीक लगता है। लेकिन भीतर कहीं न कहीं एक खालीपन है — बातचीत कम है, भावनाएँ संक्षिप्त हैं, अपनापन औपचारिक होता जा रहा है। स्त्री आज भावनाओं की धुरी कम और घर की मैनेजर ज़्यादा बनती जा रही है।
क्या यह स्त्री की कमी है? शायद नहीं।
आज की स्त्री सिर्फ रसोई तक सीमित नहीं है। वह नौकरी करती है, आय में योगदान देती है, निर्णय लेती है। फिर भी उससे यह उम्मीद रहती है कि वह घर में वही पुरानी अन्नपूर्णा भी बनी रहे — मुस्कुराती हुई, थकान छिपाए हुए, सबका ख्याल रखने वाली। जब जिम्मेदारियाँ बढ़ती हैं और सहयोग उसी अनुपात में नहीं बढ़ता, तो भावना धीरे-धीरे कर्तव्य बन जाती है।
गृहलक्ष्मी का अर्थ कभी सिर्फ घर को सँभालना नहीं था। वह घर को जोड़ने वाली शक्ति थी। आज घर सँभल तो रहा है, लेकिन जुड़ नहीं पा रहा। यह कहना आसान है कि “पहले जैसा अपनापन नहीं रहा”, पर यह पूछना कठिन है कि उसे बनाए रखने की जिम्मेदारी किसकी है।
सच यह भी है कि स्त्री को आज पहले से अधिक स्वतंत्रता मिली है — यह सकारात्मक और ज़रूरी बदलाव है। लेकिन भावनात्मक श्रम आज भी अधिकतर उसी से अपेक्षित है। अगर घर में चुप्पी है, दूरी है, तो उँगली अक्सर उसी की ओर उठती है। मानो भावना पैदा करना केवल उसी का काम हो।
शायद अब समय आ गया है कि हम अन्नपूर्णा और गृहलक्ष्मी के अर्थों पर दोबारा सोचें। क्या ये केवल स्त्री के लिए बने शब्द हैं, या पूरे परिवार की साझा जिम्मेदारी का प्रतीक? पोषण सिर्फ भोजन से नहीं होता, संवाद से भी होता है। और समृद्धि केवल पैसों से नहीं, संबंधों से भी आती है।
स्त्री आज भी अन्नपूर्णा बन सकती है, गृहलक्ष्मी भी —
लेकिन तब, जब उससे यह उम्मीद न की जाए कि वह सब कुछ अकेले निभाए।
जब घर एक व्यक्ति का प्रोजेक्ट नहीं, बल्कि सबका साझा संसार बने।
शायद तब ये शब्द फिर से जीवित होंगे —
केवल परंपरा में नहीं,
बल्कि व्यवहार में।

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