आज हम बात करेंगे उस महान वैज्ञानिक की, जिसने पूरी दुनिया की सोच बदल दी।
यह कहानी है अल्बर्ट आइंस्टाइन की – विज्ञान के जीनियस की, जिसके दिमाग में ब्रह्मांड के रहस्य थे, लेकिन जिसका दिल प्यार और पछतावे की उलझनों से भरा था।
आज हम उसकी अनसुनी दास्तान सुनेंगे – जिसमें विज्ञान है, प्यार है, जिद है, दूरियां हैं और गहरा पछतावा भी।
शुरुआत – जन्म और बचपन
अल्बर्ट आइंस्टाइन का जन्म चौदह मार्च अठारह सौ उन्यासी को जर्मनी के उल्म नामक शहर में हुआ। उनके पिता हरमन आइंस्टाइन एक मझोले इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे और मां पौलीन एक पढ़ी-लिखी, संगीतप्रेमी महिला थीं।
बचपन में आइंस्टाइन ज्यादा नहीं बोलते थे। उनके माता-पिता तक घबरा गए थे कि उनका बच्चा कहीं मंदबुद्धि तो नहीं! लेकिन इस चुप्पी के पीछे गहरी सोच थी।
माना जाता है कि उन्होंने चार साल की उम्र में बोलना शुरू किया। स्कूल में वे टीचरों के सवाल जवाब से चिढ़ जाते। वे तर्क करना चाहते थे, नियम मानना नहीं।
उनकी मां ने उन्हें वायलिन बजाना सिखाया, और यह शौक जीवनभर उनके साथ रहा। विज्ञान उन्हें सोचने की आज़ादी देता था और संगीत दिल को शांति देता था।
शिक्षा और प्रेम – मिलेवा मरिक से मुलाकात
बचपन में उनका परिवार इटली चला गया। बाद में वे पढ़ने के लिए ज्यूरिख पॉलिटेक्निक गए। यहीं उनकी मुलाकात हुई मिलेवा मरिक से।
मिलेवा सर्बिया की मेधावी छात्रा थीं। उस दौर में विज्ञान में महिलाएं कम ही होती थीं। आइंस्टाइन को मिलेवा की बुद्धिमत्ता और गंभीरता ने आकर्षित किया।
दोनों ने शादी का फैसला कर लिया, लेकिन आइंस्टाइन के परिवार को यह रिश्ता मंजूर नहीं था। उनकी मां पौलीन को लगता था कि मिलेवा उनके बेटे के लायक नहीं।
फिर भी आइंस्टाइन ने अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर उन्नीस सौ तीन में शादी कर ली। इससे पहले ही, उन्नीस सौ दो में उनकी एक बेटी लिसरल हुई थी, जिसका भविष्य रहस्य ही रह गया। माना जाता है कि या तो वह छोटी उम्र में मर गई या किसी और को सौंप दी गई।
वैवाहिक जीवन की परेशानियां
शादी के बाद उनके दो बेटे हुए – हंस अल्बर्ट आइंस्टाइन और एडुआर्ड आइंस्टाइन।
हंस आगे चलकर एक सफल इंजीनियर बना। लेकिन छोटे बेटे एडुआर्ड को गंभीर मानसिक बीमारी हो गई – सिज़ोफ्रेनिया। एडुआर्ड ने जीवन का बड़ा हिस्सा मानसिक अस्पताल में बिताया।
इसी बीच आइंस्टाइन का वैज्ञानिक करियर उड़ान भर रहा था। वे अपने शोध में इतने डूबे रहते कि परिवार और बच्चों को वक्त न दे पाते।
उनकी शादी में दरारें आने लगीं। झगड़े बढ़ गए। आइंस्टाइन ने तो एक वक्त मिलेवा को “शर्तों” वाली लिस्ट भी पकड़ा दी – जिसमें लिखा था कि वे उनसे कोई निजी बात न पूछें, उनके काम में दखल न दें, और उनकी सेवा करें।
आखिरकार उन्नीस सौ चौदह में वे अलग हो गए और उन्नीस सौ उन्नीस में उनका तलाक हो गया।
तलाक के समझौते में आइंस्टाइन ने लिखा कि अगर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलेगा तो उसकी पूरी राशि मिलेवा को देंगे। और उन्नीस सौ इक्कीस में जब उन्होंने नोबेल जीता, तो उन्होंने अपना वादा निभाया।
वैज्ञानिक क्रांति – उन्नीस सौ पांच का ‘चमत्कारी वर्ष’
अब बात करें उनके विज्ञान की।
उन्नीस सौ पांच को आइंस्टाइन का मिरेकल ईयर कहा जाता है। उन्होंने एक साल में चार क्रांतिकारी पेपर प्रकाशित किए –
ब्राउनियन मूवमेंट पर शोध,
प्रकाश-वैद्युत प्रभाव (फोटोइलेक्ट्रिक इफेक्ट),
विशेष सापेक्षता (स्पेशल रिलेटिविटी),
द्रव्यमान और ऊर्जा का समीकरण – E=mc²।
इस समीकरण ने पूरी दुनिया हिला दी। यह साबित करता था कि द्रव्य और ऊर्जा एक ही चीज़ के दो रूप हैं।
इस खोज ने भविष्य में परमाणु ऊर्जा और बम का रास्ता खोला।
उन्नीस सौ पंद्रह – सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत
आइंस्टाइन की सबसे बड़ी उपलब्धि उन्नीस सौ पंद्रह में आई – जनरल रिलेटिविटी या सामान्य सापेक्षता।
उन्होंने कहा कि गुरुत्वाकर्षण कोई अदृश्य बल नहीं, बल्कि अंतरिक्ष-काल (स्पेस-टाइम) का वक्रण है।
उन्नीस सौ उन्नीस में सूर्यग्रहण के दौरान उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई। पूरी दुनिया में अखबारों ने लिखा – “न्यूटन के बाद अब आइंस्टाइन का युग।”
फेम और मीडिया का दबाव
वह रातों-रात सुपरस्टार वैज्ञानिक बन गए। लोग उन्हें देखने आते जैसे कोई सर्कस का करतब।
किसी ने उनसे पूछा – “कैसा लगता है इतनी शोहरत पाकर?”
उन्होंने कहा – “जैसे कोई सर्कस का जानवर जिसे सब घूरते हैं।”
नोबेल पुरस्कार और पारिवारिक जिम्मेदारी
उन्नीस सौ इक्कीस में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला – विशेष सापेक्षता के लिए नहीं, बल्कि प्रकाश-वैद्युत प्रभाव के लिए।
मिलेवा से हुए तलाक के समझौते के अनुसार उन्होंने पुरस्कार राशि अपनी पूर्व पत्नी को दे दी। यही पैसे मिलेवा और बच्चों की जिंदगी में सहारा बने।
लेकिन रिश्ते फिर भी नहीं सुधरे। हंस अल्बर्ट से उनका संवाद औपचारिक रह गया। एडुआर्ड का इलाज चलता रहा और पिता-पुत्र के बीच भावनात्मक दूरी बढ़ती गई।
दूसरी शादी – एल्सा के साथ
तलाक के बाद आइंस्टाइन ने अपनी चचेरी बहन एल्सा लोवेंथल से शादी कर ली।
एल्सा के दो बेटियां थीं – इल्से और मार्गोट। एल्सा ने आइंस्टाइन की जिंदगी को व्यवस्थित किया। वह मेहमानों का ध्यान रखतीं, उनकी छवि बनाकर रखतीं।
लेकिन उनके पत्र बताते हैं कि आइंस्टाइन दूसरी महिलाओं में भी दिलचस्पी लेते थे। एल्सा इन बातों को नजरअंदाज करती रहीं।
उन्नीस सौ छत्तीस में एल्सा का निधन हो गया। उसके बाद आइंस्टाइन ने कभी शादी नहीं की।
नाजी जर्मनी से भागना और अमेरिका जाना
उन्नीस सौ तैंतीस में जब नाजी सत्ता में आए, तो आइंस्टाइन को यहूदियों पर हो रहे अत्याचार ने झकझोर दिया।
उन्होंने जर्मनी छोड़ने का फैसला किया। अमेरिका चले गए और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बने।
वहां उन्होंने शांति, मानवाधिकार और परमाणु हथियारों के खिलाफ आवाज उठाई।
परमाणु बम – उनका सबसे बड़ा पछतावा
एक दिलचस्प और दुखद बात यह है कि उन्नीस सौ उन्तीस के अंत में उन्होंने राष्ट्रपति रूजवेल्ट को एक पत्र लिखा।
उसमें उन्होंने चेतावनी दी थी कि नाजी जर्मनी परमाणु बम बना सकता है।
इस पत्र ने मैनहट्टन प्रोजेक्ट को जन्म दिया, जिसने अमेरिका को परमाणु बम दिया और जापान के दो शहरों – हिरोशिमा और नागासाकी – पर तबाही मचाई।
आइंस्टाइन जीवनभर पछताते रहे कि उनके हस्ताक्षर उस पत्र पर थे।
उन्होंने कहा –
“अगर मुझे पता होता कि लोग मेरे सिद्धांत का ऐसा इस्तेमाल करेंगे, तो मैं घड़ीसाज बन जाता।”
उनका व्यक्तित्व – सरलता और संगीत प्रेम
आइंस्टाइन दिखावे से दूर रहते थे। उनके बाल बिखरे रहते, कपड़े साधारण होते।
उन्हें संगीत बेहद प्रिय था। खाली वक्त में वे वायलिन बजाते और मोत्सार्ट या बाख की धुनों में खो जाते।
वे कहते थे –
“संगीत ने मुझे मेरी सोच से बचाया।”
आखिरी दिन और मौत
अठारह अप्रैल उन्नीस सौ पचपन को प्रिंसटन में उनका निधन हो गया।
उन्होंने साफ कहा था कि उनका शव जलाया जाए और राख बहा दी जाए – ताकि लोग उनकी पूजा न करें।
उनका दिमाग वैज्ञानिकों ने शोध के लिए सुरक्षित रखा – यह भी विवादों में रहा।
आइंस्टाइन का पारिवारिक पछतावा
उनकी सफलता के पीछे एक कीमत थी – उनके निजी रिश्ते टूट गए।
वे अपने बेटों से दूर हो गए। एडुआर्ड की बीमारी और अकेलापन उन्हें बहुत सालता रहा।
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने कहा –
“एक आदमी जो परिवार के लिए वक्त नहीं निकाल सकता, वह सफल नहीं कहा जा सकता।”
यह वाक्य उनके गहरे पछतावे का आईना है।
उनकी विरासत – एक संदेश
दोस्तों, आइंस्टाइन ने विज्ञान को बदल दिया। उन्होंने हमें ब्रह्मांड को नए नजरिये से देखने की ताकत दी।
उन्होंने कहा –
“कल्पना ज्ञान से ज्यादा जरूरी है।”
लेकिन उनकी जिंदगी हमें यह भी सिखाती है कि महानता की दौड़ में रिश्तों की अनदेखी न करें।
वे खुद अपने जीवन के अंत में एक इंसान के तौर पर यही सीख दे गए –
“शांति बल से नहीं, समझ से कायम होती है।”
तो दोस्तों, यह थी अल्बर्ट आइंस्टाइन की कहानी – विज्ञान, प्यार और पछतावे की अनसुनी दास्तान।
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