करुणा का दीप: हरकचंद सावला की कहानी
मुंबई की सड़कों पर उस दिन बारिश थमी ही थी।
टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल के सामने फुटपाथ भले सूखने लगे थे,
पर वहाँ बैठे लोगों के चेहरे अब भी किसी अंतहीन तूफ़ान में भीगे लग रहे थे।
करीब तीस वर्ष का एक युवक अस्पताल की सीढ़ियों पर बैठे उन मरीजों को निहार रहा था—
वे मरीज, जिनके चेहरे पर दर्द की झुर्रियाँ और विवशता की लकीरें ऐसे गुथी थीं
मानो जीवन ने उन्हें अपने चरम क्रूर रूप से रुबरु करा दिया हो।
उनके साथ आए परिजन,
थके-हारे, डरे-सहमे,
कभी अस्पताल के बड़े दरवाज़े को देखते,
कभी आसमान की ओर नजर उठाते,
जैसे उम्मीद का एक छोटा-सा तिनका भी उन्हें संभाल लेगा।
अधिकांश लोग दूर-दराज़ के गांवों से आए थे।
न रहने की जगह, न भोजन का भरोसा।
दवा की कीमतें उनके लिए पहाड़ थीं,
और बीमारी—वह पहाड़ जिसे वे बिना रस्सी, बिना साधन,
सिर्फ उम्मीद के सहारे चढ़ रहे थे।
यह दृश्य उस युवक की आत्मा को झकझोर गया।
वह भारी मन से घर लौटा,
पर मन जैसे वहाँ से वापस आया ही नहीं।
रात की खामोशी में भी उसे
उन्हीं चेहरों की पीड़ा सुनाई देती रही।
सोच उन्हीं की घूमती रही—
“क्या मैं इन लोगों के लिए कुछ कर सकता हूँ?”
यह प्रश्न धीरे-धीरे उसके भीतर संकल्प बनकर जड़ पकड़ने लगा।
कई दिनों की बेचैनी के बाद उसे रास्ता दिखा।
अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा निकालकर उसने
अस्पताल के निकट एक छोटा-सा भवन लिया
और एक शांत, किन्तु विशाल कार्य की नींव रख दी—
जरूरतमंदों के लिए मुफ्त भोजन की सेवा।
शुरू में यह कार्य एक छोटी लौ की तरह था।
कुछ ही लोग भोजन लेने आते,
कुछ ही हाथ सहायता के लिए आगे बढ़ते।
पर प्रेम और करुणा का काम कब छोटा रहा है?
धीरे-धीरे लौ तेज हुई, और रोशनी फैलती गई।
दिन, महीने, वर्ष बीतते गए।
बारिश, गर्मी, सर्दी—
मौसम बदलते रहे,
पर उस सेवा की थाली कभी खाली नहीं हुई।
जिस युवक ने यह कार्य शुरू किया था,
आज वही मानवता की मिसाल बन चुका है—
हरकचंद सावला।
भोजन सेवा के बाद उन्होंने देखा कि कई मरीज दवा खरीदने में असमर्थ हैं।
और तब उन्होंने शुरू किया—
मेडिसिन बैंक,
जहाँ डॉक्टर और फार्मासिस्ट स्वेच्छा से सेवा देने लगे।
कैंसर से जूझते बच्चों की आँखों से मासूम चमक न खो जाए,
इसके लिए उन्होंने टॉय बैंक भी बनाया—
एक छोटी-सी मुस्कान देने का प्रयास,
जो शायद किसी बच्चे को दर्द भुला दे।
धीरे-धीरे सावला के नेतृत्व में
जीवन ज्योत कैंसर रिलीफ एंड केयर ट्रस्ट
मानवीयता की एक विस्तृत छतरी बन गया—
भोजन, दवा सहायता, रक्त सहयोग,
काउंसलिंग और आर्थिक सहायता जैसे अनेक कार्यों के साथ।
सत्तर की दहलीज पार करने के बावजूद
हरकचंद सावला का उत्साह आज भी वैसा ही है
जैसा उस पहले दिन था,
जब उन्होंने अस्पताल की सीढ़ियों पर बैठे मरीजों को देखा था।
पुरस्कार, पहचान, प्रसिद्धि—
उनकी यात्रा में ये सब कभी लक्ष्य नहीं रहे।
उन्होंने हमेशा कहा—
“सच्ची सेवा वह है, जिसे करने वाला खुद भूल जाए,
पर जिसका असर दुनिया याद रखे।”
आज जब हम समाज के चमकते चेहरों की ओर देखते हैं,
तो यह भी याद रखना चाहिए कि
असल रोशनी अक्सर उन लोगों के भीतर छिपी होती है
जो बिना शोर किए,
बिना मंचों की रोशनी के,
किसी अजनबी के जीवन में आशा का दीप जलाते हैं।
हरकचंद सावला उसी दीप का नाम है—
जो अब भी टिमटिमाता नहीं,
बल्कि स्थिर, अडिग और उज्ज्वल होकर
हजारों जीवनों को रोशन कर रहा है।